'अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य'-राजेश जोशी ……


राजेश जोशी हे हिंदी साहित्यातील लेखक ,कवी ,पत्रकार आणि नाटककार आहेत. त्यांच्या 'दो पंक्तीयो के बीच' या काव्यसंग्रहास २००२ साली साहित्य अकादमी पुरस्कार मिळाला होता. त्यांच्या अनेक कविता इंग्रजी ,जर्मन ,रशियन ,उर्दू आणि भरतातील अनेक प्रादेशिक भाषेत भाषांतरित झाल्या असून त्यांना आजपर्यंत मुक्तिबोध पुरस्कार ,माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार ,श्रीकांत वर्मा स्मृती सन्मान ,शिखर सन्मान आदी पुरस्काराने गौरीविण्यात आले आहे . लहर ,पहल, धर्मयुग ,साप्ताहिक हिंदुस्तान सारख्या नियतकालिकांसाठी त्यांनी लेखन केले . तर नया विकल्प ,नया पथ, वर्तमान साहित्य या नियतकालिकाचे संपादक पद त्यांनी भूषविले . एक दिन बोलेंगे पेड आणि 'दो पंक्तीयो के बीच' हे त्यांचे गाजलेले काव्यसंग्रह ! या शिवाय 'समरगाथा' हे दीर्घकाव्य आणि दोन कथासंग्रह , चार नाटके आणि लहान मुलांसाठी 'गेंद निराळी मिठ्ठू की' हे लेखन प्रसिद्ध आहे . नागार्जुन रचना संचयन या नागार्जुन यांच्या रचनांच्या संग्रहाचे संपादन २००५ साली प्रकाशित झाले आहे .
राजेश जोशी यांची एक कविता 'अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य' इथे आवर्जून सांगावीशी वाटते ...............
अन्धेरे में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह थी कि वह क़िताब पढ़ना
नामुमकिन बना देता था ।

पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या क़िताब से डरता था
उसके मन में शायद यह संशय होगा कि क़िताब के भीतर
कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है ।
हालाँकि सारी क़िताबों के बारे में ऐसा सोचना
एक क़िस्म का बेहूदा सरलीकरण था ।
ऐसी क़िताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं ,
जो अन्धेरा पैदा करती थीं
और उसे रोशनी कहती थीं ।
रोशनी के पास कई विकल्प थे
ज़रूरत पड़ने पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था
ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको
कम या ज़्यादा किया जा सकता था
ज़रूरत के मुताबिक परदों को खींच कर
या एक छोटा-सा बटन दबा कर
उसे अन्धेरे में भी बदला जा सकता था
एक रोशनी कभी कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास
एक रोशनी कहीं भीतर से, कहीं बहुत भीतर से
आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी ।
एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था
कहता था, उसे रेशा-रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है ।
अधिक रोशनी का भी चकाचैंध करता अन्धेरा था ।
अन्धेरे से सिर्फ़ अन्धेरा पैदा होता है यह सोचना ग़लत था
लेकिन अन्धेरे के अनेक चेहरे थे
पाँवर-हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर
कई दिनों तक अंधकार में डूबा रहा
देश का एक बड़ा हिस्सा ।
लेकिन इससे भी बड़ा अन्धेरा था
जो सत्ता की राजनीतिक ज़िद से पैदा होता था
या किसी विश्वशक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले
ग़ुलाम दिमाग़ों से !
एक बौद्धिक अँधकार मौका लगते ही सारे देश को
हिंसक उन्माद में झोंक देता था ।
अन्धेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ ज़िद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अन्धेरे समय में अन्धेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है ।
वो अन्धेरे समय में अन्धेरे के गीत गाते थे ।
अन्धेरे के लिए यही सबसे बड़ा ख़तरा था ।
सध्याच्या वातावरणावर अतिशय चपखल भाष्य करणारी ही कविता राजेश जोशी यांच्या उत्तुंग साहित्यिक प्रतिभेची साक्ष देते .
राज कुलकर्णी .

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